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Wednesday, November 5, 2014

Ghulam Ali Ghazl


रक्स करती है फ़ज़ा वज्द में जाम आया है

फिर कोई ले के बहारों का पयाम आया है।


मैंने सीखा है ज़माने से मोहब्बत करना

तेरा पैग़ाम-ए-मोहब्बत मेरे काम आया है।


तेरी मंज़िल है बुलंद इतनी कि हर शाम-ओ-सहर

चाँद-सूरज से तेरे दर को सलाम आया है।


ख़ुद-ब-ख़ुद झुक गई पेशानी-ए-अरबाब-ए-ख़ुदी

इश्क की राह में ऐसा भी मकाम आया है।


जब कभी गर्दिश-ए-दौराँ ने सताया है बहुत

तेरे रिन्दों की ज़बाँ पर तेरा नाम आया है।



 
         

 

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