राज़ ये मुझपे आशकारा है
इश्क शबनम नहीं शरारा है।
इक निग़ाह-ए-करम फिर उसके बाद
उम्र भर का सितम गवारा है।
रक़्स में हैं जो सागर-ओ-मीना
किसकी नज़रों का ये इशारा है।
लौट आए हैं यार के दर से
वक़्त ने जब हमें पुकारा है।
अपने दर्शन पे इक निग़ाह-ए-करम
वो ग़म-ए-ज़िन्दग़ी का मारा है।
इश्क शबनम नहीं शरारा है।
इक निग़ाह-ए-करम फिर उसके बाद
उम्र भर का सितम गवारा है।
रक़्स में हैं जो सागर-ओ-मीना
किसकी नज़रों का ये इशारा है।
लौट आए हैं यार के दर से
वक़्त ने जब हमें पुकारा है।
अपने दर्शन पे इक निग़ाह-ए-करम
वो ग़म-ए-ज़िन्दग़ी का मारा है।
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