जब कभी साकी-ए-मदहोश की याद आती है
नशा बन कर मेरी रग-रग में समा जाती है।
डर ये है टूट ना जाए कहीं मेरी तौबा
चार जानिब से घटा घिर के चली आती है।
जब कभी ज़ीस्त पे और आप पे जाती है नज़र
याद गुज़रे हुए ख़ैय्याम की आ जाती है।
मुसकुराती है कली, फूल हँसे पड़ते हैं
मेरे महबूब का पैग़ाम सबा लाती है।
दूर के ढोल तो होते हैं सुहाने ‘दर्शन’
दूर से कितनी हसीन बर्क़ नज़र आती है।
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