ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम इन्शा जी का नाम न लो, क्या इन्शा जी सौदाई हैं?
हैं लाखों रोग ज़माने में क्यों इश्क है रुसवा बेचारा
हैं और भी वज़हें वहशत की इन्शा को रखतीं दुखियारा।
हाँ, बेकल-बेकल रहता है, हो पीत में जिसमें जी हारा
पर शाम से लेकर सुबहो तलक यूँ कौन फिरे है आवारा।
गर इश्क किया है तब क्या है, क्यों शाद नहीं आबाद नहीं
जो जान लिए बिन टल ना सके ये ऐसी भी उफ़ताद नहीं।
ये बात तो तुम भी मानोगे वो कैस नहीं फ़रहाद नहीं
क्या हिज्र का दारू मुश्किल है, क्या वस्ल के नुस्खे याद नहीं।
जो हमसे कहो हम करते हैं, क्या इन्शा को समझाना है
उस लड़की से भी कह लेंगे गो अब कुछ और ज़माना है।
या छोड़ें या तक़मील करें ये इश्क है या अफ़साना है।
ये कैसा गोरखधंधा है, ये कैसा तानाबाना है।
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